जब से सर्दी शहर में सिर चढ़ कर बोली है... मेरा तो साहस ही बोल गया है। सर्दी से सिसियाती उँगलियाँ कलम पकड़ने को तैयार नहीं हैं और कलम है कि कभी कथित अलावों
के आस-पास चक्कर लगाती है तो कभी फुटपाथ पर पड़े भिखारी की चादर टटोलती है। ... उधर सर्दी ने ऐसा गजब ढाया है कि मित्र ही पहचानने से इनकार करने लगे हैं। ...
दरअसल जैसे ही सर्दी की सुइयाँ चुभीं, मैंने भी सारे कवच निकाल दिए। एक के ऊपर एक-दो-तीन बनियाइनें, इतने ही स्वेटर और फिर जैकेट। सिर पर सिर्फ आँखें ही
दर्शाने की इजाजत देनेवाला टोपा। मित्रों से मिला तो न हैलो न हाय... न टाटा, न बाय-बाय। बिलकुल अजनबियों जैसा व्यवहार...। और-तो-और भाभीश्री से मिलने पहुँचा
तो वह बोली, 'आप किससे मिलना चाहते हैं भाई साहब...।' इससे पहले कि भतीजे श्री ने चाचाजी कहते टोपा उतार दिया...। तब कहीं अंदर जाने की इजाजत मिली।
शीशे के सामने खड़ा हुआ तो स्वयं को पहचानना मुश्किल था। इतना लदे-फँदे होने के बावजूद जाड़ा भीतर तक जम रहा था। चूँकि सोचना अपना काम है सो सोचता हूँ कि अपने
पास माँगे-जाँचे के ही सही उतनी बनियाइनें-स्वेटर हैं पर जिनकी स्थिति 'धोती-फटी, दुपटा और पाँय उपानहु को नहि सामा' जैसे हैं, अर्थात जो जन्मजात सुदामा हैं,
उनके लिए सर्दी, सर्द-ई हो गई है...। ऐसे में यदि सर्दी यह कहे 'शहर बीच में बैठि के सबकी लेता खैर, अमीरन सो दोस्ती, गरीबन से बैर' तो ऐसा लगता है कि
टेंप्रेचर एक प्वाइंट और नीचे खिसक गया है।
किसी विधवा के चूल्हे और जिंदगी की तरह ठंडे शहर के सुदामा... जिनके नसीब में कंबल की जगह सरकारी अलाव लिखे हैं... वे यदि फाइलें टटोलना या अखबार पढ़ना जानते
होते तो ये कथित अलाव खोज लेते... पर उन्हें तो बताया गया कि ये अलाव चौराहों पर जल रहे हैं...। मैंने एक अलाव जलावनहार कर्मचारी से पूछा, 'भैये! हमारे चौराहे
का अलाव कहाँ है?' वह मुस्कराकर बोला, 'मेरे पेट में।' मैं चौंका। एक सरकारी कर्मचारी वह भी नगर निगम के कमाऊ ओहदे पर... उसके पेट में अलाव कब से जलने लगा। पेट
में आग तो उस मजदूर के लगती है जिसे काम के बिना मंडी से लौटना पड़ता है...। बाद में जब शोध किया तो पता चला कि वाकई कर्मचारी महोदय के पेट में अलाव जल रहा था।
अलाव की लकड़ी दारू की बोतल में तब्दील होकर... उसका सर्दी-कवच बन चुकी थी...। वह लड़खड़ाते कदमों से आगे बढ़ा ओर बड़बड़ाया..., थोड़ी-सी जो पी ली है..., चोरी
तो नहीं की है। शायद वह सही कह रहा था सरकारी अनुदान... सरकारी कर्मचारी नहीं पियेगा तो क्या सड़क छाप सुदामा उसकी आग जलाकर तापेगा! कितने ही अलाव जिन्हें आज
शहर के चौराहों पर होना चाहिए... कबाब-शराब बनकर उन्हीं बेहतर हाजमेवाले उदरों में उदरस्थ हो गये होंगे...। ठंड के कोई आँखें तो होती नहीं जो वह इन उच्च
उदरधारियों को देख-पहचान सके। शायद इसीलिए किसी कवि मित्र को कहना पड़ा - 'काजू भरी है प्लेट में, व्हिस्की गिलास में, उतरा है रामराज विधायक निवास में।'
मेरे एक मित्र हैं... बिलकुल कोशीय प्राणी। भ्रष्ट नेताओं के चरित्र की तरह हल्के और भारतीय अर्थव्यवस्था की तरह दुबले-पतले। मोटर साइकिल के साइलेन्सर के
पीछे खड़े होने से भी डरते हैं कि कब ड्राइवर पिकअप ले और पीछे निकला धुआँ उन्हें दो-चार मीटर पीछे खिसका दे। ...जाड़ा शुरू होते ही अचानक स्वस्थ और
मोटे-ताजे दिखने लगते हैं...। कल मिले तो बिलकुल बिस्तरबंद थे। 'अचानक स्वास्थ्य में उनका इजाफा? अर्थात पैकेट बन गया खाली लिफाफा?' पूछा तो बोले, 'जाड़े
में मेवे खाता हूँ और सरकारी माल पर ऐश कर रहा हूँ...।' मैं चौंका। जिसे दोनों समय भर पेट रोटी नसीब नहीं वह मेवा खा रहा है। मेरी शंका का समाधान करने के लिए
उन्होंने जेब से एक मूँगफली निकाली। छीली...। दो दानों में से एक मेरी हथेली पर रखते हुए बोले, 'लो आप भी मेवा खाओ। मेरे साथ रहोगे तो ऐसे ही ऐश करोगे?'
मुस्कराहट आना स्वाभाविक था। मैंने पूछा, 'यही है तुम्हारी मेवा...?' वह हँसे बोले, 'नागरिक जी! गरीबों की यही मेवा है। जाड़ा शुरू होते ही 50 ग्राम खरीद
लेता हूँ...। पूरे जाड़े भर ऐश करता हूँ...। आप जैसे मित्रों को भी खिलाता हूँ।' अब तो मुझे हँसी आ गई। मैंने कहा, 'कुछ और भी खाया करो...।' मेरी बात सुनकर वह
उदास हो गया। गंभीर स्वर में बोला, 'खाने के लिए यहाँ बचा ही क्या है? मिल थी... मजदूर नेता खा गये...। मंडी को दलाल खा गये...। पार्कों, फुटपाथों को
भूमाफियाओं ने पचा लिया, स्कूल-कॉलेजों को शिक्षा ठेकेदार डकार गये। नगर निगमों ने सड़कें चबा लीं...। चोरों ने मेनहोल के ढक्कन निगल लिए...। एक चरित्र था उसे
आज की राजनीति खा गई...। अब मेरे जैसों के लिए मूँगफली बची है... सो कभी-कभी खा लेता हूँ....।' उसके तर्क गहरे तक चुभ गये...। मैंने सलाह दी, 'किसी राजनेता के
सामने ऐसी बातें नही करना, नहीं तो हड्डियाँ तुड़वा देगा।' वह व्यंग्य से मुस्कराया, 'कम-से-कम जाड़े में तो हड्डियाँ सुरक्षित हैं... क्योंकि पुलिसवाले को
तीन महीने लग जायेंगे... मेरे जैसे बिस्तरबंद की हड्डियाँ तलाशने में।'
दादी ने बताया कि हमारे जमाने में शहर में इतना जाड़ा पड़ा था कि नलों का पानी जम गया था। मैंने दादी के इस शौर्यपूर्ण वक्तव्य को धराशायी किया -
'पर अब तो नलों का पानी हमेशा जमा रहता है...। इसीलिए तो पानी आता ही नहीं।' दादी ने फिर तीर मारा, 'हमारे जमाने में एक बार इतना कोहरा पड़ा था कि दिन में भी
बड़े बल्बों की रोशनी तक नहीं दिखती थी।' मैंने भी आधुनिक शौर्य बखाना, 'पर दादी अब तो गर्मियों में भी बल्ब की रोशनी नहीं दिखती क्योंकि बिजली आती ही नहीं।
दादी जैसे लाजवाब हो गई थीं सो रजाई ओढ़ ली। मैंने देखा जाड़ा रोशनदान से उनके कमरे में उतर रहा था, सो उसमें एक गत्ता लगा दिया। ऐसा करते हुए मेरे सामने फूस की
कई झोंपड़ियाँ उभर आईं।'
बहरहाल लाख दरवाजे, रोशनदान खिड़कियाँ बंद कर ली जायें, जाड़ा है कि कमरों के भीतर आ ही जाता है। मेरी एक प्रशंसक मित्र हैं...। चार साल का बेटा है उनका...। कल
किसी काम से उनके घर गया तो बेटे को केसर चटा रही थीं और समझा रही थीं, 'खा ले बेटा... तुझे सुबह स्कूल जाना है...।' केसर और स्कूल का क्या संबंध? पूछा तो
हँस कर बोलीं, 'आपको पता नहीं शायद, केसर गरम होती है...। बच्चे को ठंड में पाँच बजे स्कूल के लिए निकलना पड़ता है। सवा पाँच बजे बस आती है। ...सात बजे स्कूल
पहुँचता है। पौने दो घंटे बस में... उस पर रिकॉर्ड जाड़ा।'... मैंने मुन्ने को देखा...। मुझे खरगोश के बच्चे जैसा लगा वह, जिसे... सर्कस में प्रदर्शन के लिए
तैयार किया जा रहा हो।